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विविध उपन्यास >> अन्तिम अरण्य

अन्तिम अरण्य

निर्मल वर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :215
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8927
आईएसबीएन :978-81-263-1993

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यह प्राचीन भारतीय कथाशैली का एक नया रूपान्तर है। लगभग हर अध्याय अपने में एक स्वतन्त्र कहानी पढ़ने का अनुभव देता है, लेकिन उसका उपन्यास की संरचना में एक अपरिहार्य स्थान है।

Ek Break Ke Baad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अन्तिम अरण्य यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है कि बाहर से एक कालक्रम में बँधा होने पर भी उपन्यास की अन्दरूनी संरचना उस कालक्रम से निरूपित नहीं है। अन्तिम अरण्य का उपन्यास-रूप न केवल काल से निरूपित है, बल्कि वह स्वयं काल को दिक् में-स्पेस में-रूपान्तरित करता है। उनका फॉर्म स्मृति में से अपना आकार ग्रहण करता है-उस स्मृति से जो किसी कालक्रम से बँधी नहीं है, जिसमें सभी कुछ एक साथ है-अज्ञेय से शब्द उधार लेकर कहें तो जिसमें सभी चीजों का क्रमहीन सहवर्तित्व है। यह क्रमहीन सहवर्तित्व क्या काल को दिक् में बदल देना नहीं है ?...

यह प्राचीन भारतीय कथाशैली का एक नया रूपान्तर है। लगभग हर अध्याय अपने में एक स्वतन्त्र कहानी पढ़ने का अनुभव देता है, लेकिन उसका उपन्यास की संरचना में एक अपरिहार्य स्थान है। हर अध्याय स्वतन्त्र भी है और साथ ही उपन्यास की अन्दरूनी संरचना में वह अपने से पूर्व के अध्याय से निकलता और आगामी अध्याय को अपने में से निकालता दिखाई देता है।

एक ऐसी संरचना जहाँ प्रत्येक स्मृति अपने में स्वायत्त भी है और एक स्मृतिलोक का हिस्सा भी। यह रूपान्तर औपचारिक नहीं है और सीधे पहचान में नहीं आता क्योंकि यहाँ किसी प्राचीन युक्ति का दोहराव नहीं है। भारतीय कालबोध-सभी कालों और भुवनों की समवर्तिता के बोध-के पीछे की भावदृष्टि यहाँ सक्रिय है।

- नन्दकिशोर आचार्य

1

1.1

वह आ रहे हैं। मैं उन्हें दूर से देख सकता हूँ। मैं कोशिश करता हूँ कि यह जान सकूँ कि वह किसी के साथ हैं या अकेले ? लेकिन यह असम्भव है। वह ढलान के ऐसे कोण पर हैं, जहाँ दूसरा हो भी, तो दिखाई नहीं दे सकता। मैंने कोशिश छोड़ दी है। वह अब पेड़ों के अन्तिम झुरमुट में चले गए हैं, जिसकी हरियाली छत पर डूबते सूरज की एक पीली परत फैली है। उसके ऊपर परिन्दों का रेला है और उसके ऊपर आकाश, तारे, हवा…और फिर कुछ भी नहीं।

मैं उन्हें काफ़ी दूर से देख सकता हूँ...वह अब पेड़ों के झुरमुट से बाहर निकल आए हैं और पगडंडी के उस अन्तिम सिरे पर चलने लगे हैं, जो उनकी कॉटेज के पिछवाड़े तक जाती है। उनके एक हाथ में छड़ी है, दूसरे में टॉर्च। तीसरा हाथ होता तो शायद वह उसे अपने कन्धे पर रख लेते…और खुद अपने सहारे के साथ नीचे उतरते जाते। किसी में इतना साहस नहीं कि उन्हें सहारा दे सके। वह किसी पर निर्भर नहीं हैं। उन चीज़ों में तो बिलकुल नहीं जो दैनिक और दुनियावी हैं। उन्हें देखकर मुझे होटल के बन्द कमरे याद हो आते हैं, जिन पर सफ़ेद तख्ती लगी रहती है...प्लीज़ डोंट डिस्टर्ब ! यह वही कर सकता है, जिसे मालूम है कि बाहर उसके लोग बेंचों पर बैठे हैं, उसकी प्रतीक्षा में। कब तख़्ती उतरे, कब वे उसके पास जाएँ। जो व्यक्ति सचमुच अकेला होता है, वह ऐसी तख़्तियाँ नहीं लगाता या अगर लगाएगा तो उस पर लिखा होगा...कम वन। कम ऑल।

वह अचानक खड़े क्यों हो गए ? वह दरवाज़ा खोलकर भीतर क्यों नहीं चले जाते ?

उन्होंने टॉर्च बुझा दी और बन्द कमरे के आगे देहरी पर ठिठके रहे। क्या वह कुछ सुन पा रहे हैं, जो इतनी दूर सै मैं नहीं सुन पाता ? क्या यह ठीक है, इस तरह अपने घर के आगे चोरों की तरह खड़े होना, खुद अपने घर की आवाज़ों को सुनना ? इस उम्र में क्या आदमी इतना शक्की हो जाता है कि स्वयं अपनी दीवारों पर सन्देह करने लगता है ?

लेकिन दूसरे ही क्षण मुझे लगा...मैं कितना ग़लत था ! वह सुन नहीं रहे, सिर्फ़ देख रहे थे। थोड़ा-सा पीछे हटकर अपने घर को देख रहे थे, कुछ वैसे ही जैसे थोड़ा-सा पीछे हटकर हम किसी पेंटिंग को देखते हैं। दो पहाड़ियों के फ्रेम में जड़ी उनकी कॉटेज अपने भीतर की रोशनियों में चमचमा रही थी। अँधेरा कहीं था तो सिर्फ़ वहाँ, जहाँ वह खड़े थे। अपनी झुकी हुई पीठ, हिलती हुई छड़ी और बुझी हुई टॉर्च के साथ...चोरों की तरह वह अपने घर को नहीं, मैं उन्हें देख रहा था।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि जिसे हम अपनी ज़िन्दगी, अपना विगत और अपना अतीत कहते हैं, वह चाहे कितना यातनापूर्ण क्यों न रहा हो, उससे हमें शान्ति मिलती है। वह चाहे कितना ऊबड़खाबड़ क्यों न रहा हो, हम उसमें एक संगति देखते हैं। जीवन के तमाम अनुभव एक महीन धागे में बिंधे जान पड़ते हैं। यह धागा न हो, तो कहीं कोई सिलसिला नहीं दिखाई देता, सारी जमापूँजी इसी धागे की गाँठ से बँधी होती है, जिसके टूटने पर सबकुछ धूल में मिल जाता है। उस फ़ोटो अलबम की तरह, जहाँ एक फ़ोटो भले ही दूसरी फ़ोटो के आगे या पीछे आती हो, किन्तु उनके बीच जो खाली जगह बची रह जाती है, उसे भरनेवाला मैं कब का गुज़र चुका होता है। वे हमारे वर्तमान के नेगेटिव हैं...सफ़ेद रोशनी में पनपनेवाले प्रेत...जिन्हें हम चाहें तो बन्द स्मृति की दराज से निकालकर देख सकते हैं। निकालने की भी ज़रूरत नहीं...एक दृश्य को देखकर दूसरा अपने आप बाहर निकल आता है, जबकि उनके बीच का रिश्ता कब से मुरझा चुका होता है।

जैसे उस शाम मैंने उन्हें अपनी कॉटेज के बाहर खड़े हुए देखा...तभी मुझे एक दूसरा दृश्य याद हो आया। एक नीरव और शान्त लैंडस्केप। दो उठी हुई पहाड़ियों के बीच नीचे जाता हुआ ताबूत, जिसमें उनकी पत्नी लेटी हैं। वह नीचे जा रही हैं...और वह नीचे झुककर खुली हुई कब्र के अँधेरे खोखल में झाँक रहे हैं। उनके पीछे उनकी बेटी खड़ी है, जिसकी आँखें रूमाल से ढँकी हैं। क्या वह रो रही है ? मुझे नहीं मालूम। मैं न उसकी आँखें देख सकता हूँ, न चेहरा...क्योंकि जहाँ मैं खड़ा हूँ, वहाँ से सिर्फ़ उनका एक उठा हुआ हाथ और हवा में लटकते हुए रूमाल का सिरा ही दिखाई देते हैं। अचानक मुझे वह हँसी सुनाई देती है...सफ़ेद दाँतों की चमकीली पाँत से पहाड़ी झरने की तरह कल-कल करती हुई...उनकी हँसी, जिन्हें दफ़नाया जा रहा था। वह ऐसे हँसा करती थीं, जैसे वे बच्चे, आँखमिचौनी खेलते हुए अपने छिपे हुए कोने से हँसते हैं, जब उन्हें खोजनेवाला उन्हें देखकर पास से गुज़र जाता है। मैंने आगे बढ़कर उनके कन्धे पर हाथ रखा...चलिए, मैंने कहा, अब वे हमेशा के लिए छिप गई हैं।

उनके पास शुरू में मैं जब आया था, तो मुझे हैरानी होती थी। वे बैठते एक कमरे में हैं, जबकि बत्तियाँ सारे कमरों की जलती रहती हैं। एक बार मुझे नोट्स लिखवाते समय वह बीच में ही रुक गए। मैंने सोचा, वह कुछ याद कर रहे हैं। मैं कलम उठाए उनकी तरफ़ देखता रहा। अचानक उन्होंने छड़ी उठाई और दीवार पर टँगी रस्सी को खींचा...वह घंटी थी, जो रस्सी से खिंचकर सीधे मुरलीधर के क्वार्टर में बजती थी। चूँकि वह कमरे में सुनाई नहीं देती थी, इसलिए जब मुरलीधर आता, तो लगता, जैसे वह घंटी सुनकर नहीं, रस्सी से खिंचता हुआ यहाँ आया है।

वह भीतर नहीं आता था, पायदान पर खड़ा भीतर झाँकता था, एक कठपुतली की तरह, जिसका सिर हिलता है, बाकी देह अँधेरे में छिपी रहती है। पिछले कमरे की बत्ती नहीं जलाई ? उन्होंने पूछा। जी ? वह देखता रहा। क्या भूल गए थे आज ? जी नहीं, उसने सिर हिलाया, बल्व फ़्यूज़ था। कल लाऊँगा।

वह कुछ और नहीं बोले। जो चीज़ बुरी लगती थी, उसके बारे में वह चुप हो जाते। कुछ देर बाद जब वह मेरी ओर मुड़े और पूछा, मैं कहाँ था ? तो नोटबुक में उनके रुके हुए वाक्य को दुबारा पढ़ने की बजाय मैंने हँसकर कहा...आप यहीं थे, जहाँ बत्ती जली है। आप दूसरे कमरों के बारे में परेशान क्यों रहते हैं ?

उनके चेहरे पर एक अजीब निराशा का भाव आया, मकान, घर, कमरे। वे काफ़ी दूर-दूर तक फैले थे और वह उन्हें पार करके मेरे पास नहीं आना चाहते थे। यह सिर्फ़ उम्र का ही तकाज़ा नहीं था। यह एक-दूसरे किस्म का तकाज़ा था, जिसे लाँघकर मुझे हमेशा उनके पास आना पड़ता था। उन्हें यह अच्छा भी लगता था। वह नहीं चाहते थे कि मैं हमेशा उनके साथ रहूँ। कोई हमेशा उनके पास रहे...आस-पास भले ही मँडराता रहे...लेकिन उनसे चिपका न रहे। यह बात सब पर लागू होती थी...वह उनकी बेटी हो, या मेहमान, या नौकर... इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता था।

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